रिपोर्ट -शौकीन खान/कौशल किशोर गुरसरांय
गुरसरांय (झांसी)। पंचकल्याणक महोत्सव के दौरान मुनिश्री सुप्रभसागर जी महाराज ने अपने प्रवचन के दौरान कहा कि आज शब्दों के ज्ञानी तो बहुत से दिखाई देते है लेकिन वे वास्तव में ज्ञानी नहीं हैं क्योंकि पढ्ने मात्र से कोई भी ज्ञानी नहीं हो जाता अपितु भावों की विशुद्धि से, चारित्र की शुद्धि से ही सम्यक् ज्ञानी बना जाता है। शब्दों का ज्ञान तो बहुत लोगों के पास होता है परन्तु जो उन शब्दों को पढ़कर अपने अंतर में उसे लख होते है, अपने भीतर लिख लेते है वास्तव में वे ही ज्ञानी हैं और उनका ज्ञान ही आत्मन कल्याण में उपयोगी होता है। इसलिए पढ़े-लिखे नहीं अपित लिखे-पढ़े होने की आवश्यकता है। परम पूज्य मुनि श्री ने कहा कि किसी जादू- -टोने से हमारा भविष्य सुधरने वाला नहीं है अपितु जो कारण-कार्य व्यवस्था को समझते हुए वर्तमान के अपने भावों को सुधार लेता है उसका भविष्य नियम से सुधर जाता है। संसार के सुख-दुःख तो कल्पना मात्र है, व्यक्ति को अनुकूल वस्तु प्राप्त हो जाती है तो सुखी हो जाता है। वहीं के प्रतिकूलता होने पर दुःखी होने लगता है। जिसके के पास कम होता है उसे तो कुछ देकर संतुष्ट किया जा सकता है लेकिन जिसको कम लगता है उसे कभी भी संतुष्ट किया ही नहीं जा सकता है। अपनी विपरीत मान्यताओं के कारण ही व्यक्ति दुःखी होता है। यही विचार करते हुए महाराजा मुनिसुव्रतनाथ ने समस्त राजपाट का त्याग करते हुए उन्होंने निर्ग्रथ दीक्षा धारण करली। तीस हजार वर्ष की जिनकी आयुधी, साढ़े सात हजार वर्ष बाल्यकाल में सुखपूर्वक व्यतीत की, और पन्द्रह हजार वर्ष तक राज सुख भोगकर एक हाथी को देखकर अपने अवधि ज्ञान से वह वैराग्य को प्राप्तकर निर्ग्रय दीक्षा की ओर अग्रसर हो गये। क्योंकि भगवान जिनेन्द्र के शासन में वस्त्रधारी की सिद्धि होती ही नहीं है। बनने वाले भगवान को सबकुछ त्याग कर निग्रंथ होना पड़ता है तब जाकर वे भगवान बनते हैं।
इस अवसर पर सकल दिगम्बर जैन समाज के अध्यक्ष मोदी चक्रेश जैन, प्रकाश चन्द्र जैन नुनार, गुलाब जैन ठेकेदार, महेन्द्र सिंघई, राजकुमार जैन, राजू सिंघई, पिस्सू जैन, सम्यक जैन, प्रतीक जैन, डा. सुधीर जैन, सचिन जैन, सुनील जैन डीकू सहित आदि लोग उपस्थित रहे।